बाबुल

 बाबुल,

मैं हूँ तुम्हारे आँगन की गुड़िया,
ढेरों शैतानियाँ करती आफ़त की पुड़िया,
तुम्हारे कलेजे का टुकड़ा,
जिसका है चाँद सा मुखड़ा 

अम्मा,
मैं हूँ तुम्हारी आँखों का तारा,
जिसकी खिलखिलाहट से गूँजे है घर सारा | 
कब मैं तुम्हारी बिटिया और कब तुम मेरी सहेली,
कोई न बूझ पाया यह अजब पहेली | 

बाबुल, तुम्हारी अँगुलि पकड़कर चलती मैं 
और अम्मा, तुम्हारे आँचल में चैन की नींद सोती मैं 
घर के आँगन में ढेरों सपने बुनती मैं 

अम्मा और बाबा, पर एक बात बताओ 
मेरे मन की दुविधा सुलझाओ,
तुम्हारे घर की लक्ष्मी मैं 
फिर क्यों बोलते हो मुझे पराया धन,
सुनकर जिसे एक टीस सी उठती है,
जो मेरे अंतर्मन को चीर के रख देती है

क्या यह घर मेरा नहीं 
और क्या तुम लोगों से मेरा कोई नाता नहीं ?
क्या दूसरा घर भी मेरे इस घर जैसा होगा 
जहाँ मैं खिलखिला कर हँस सकूँगी,
चादर ताने बेफ़िक्र सो सकूँगी,
खुले आसमां  में आज़ाद पंछी की तरह उड़ सकूँगी,

वहाँ के आँगन में सहेलियों संग गप्पे लड़ा सकूँगी,
जो चाहे पहन सकूँगी और
जब चाहे आपसे मिलने आ सकूँगी?

अम्मा- बाबा,
क्या आप लोग मुझे नए रूप में उस नए घर में मिलोगे
जो मुझे बहू नहीं अपनी बिटिया मानोगे,
मेरे दुःख दर्द भी बाँटोगे,
लोग क्या कहेंगे इस सोच के नीचे तो नहीं दबाओगे
डर लगता है कि कहीं से आवाज़ न आए
जो अंदर तक झकझोर जाए कि
पराए घर से आयी है
बेटी नहीं यह तो बहू ही कहलाई है| 

बाबा, तुमने तो कहा था कि
मैं पराया धन हूँ और एक दिन मुझे अपने घर जाना है
पर यहाँ भी मैं पराई ही हूँ
बहू ही हूँ बेटी तो नहीं बन पाई हूँ |

यह घर भी पराया वह घर भी पराया
तो मैं किस घर जाऊँ बाबा
अपनी खुशियाँ किसे दिखाऊँ बाबा
और अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ बाबा?

बस यही सोचती रहती हूँ
हाँथों की लकीरों में ढूँढती रहती हूँ
और ख़ुद से ही यह सवाल करती रहती हूँ
कि क्या दोनों घर मेरे नहीं हो सकते और
क्या मैं दोनों घरों की बेटी नहीं हो सकती??


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