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Showing posts from February, 2021

ज़िन्दगी ने कहा

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सुबह उठकर मैं रोज़ के अपने, काम शुरू करने जा ही रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, आराम से बैठकर चाय की एक चुस्की तो ले ज़रा |  काम करते- करते बीच में मैं, आने वाले कल के बारे में सोचती जा रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, पहले आज को तो जी भर के जी ले ज़रा |  परेशानियों से ऊबकर, अपने आप से ही भागने जा रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, डटकर परेशानियों का सामना करके देख तो ज़रा | अपनी इच्छाओं को मारकर, दूसरों के लिए जा रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, थोड़ा अपने लिए सज- सँवर कर देख तो ज़रा |  दूसरों को आगे बढ़ता देख, मैं खुद को पीछे छूटता पा रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, तू भी पंख फैलाकर उड़ान भर के देख तो ज़रा |  भरी महफ़िल में शामिल होकर भी, खुद को तन्हा ही पा रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, किसी की तरफ हाथ बढ़ाकर देख तो ज़रा |  सुना था कि दुनिया बहुत हसीन है पर मैं तो इसको बेरंग ही देख रही थी कि ज़िन्दगी ने कहा, एक नज़र मुस्करा कर देख तो ज़रा | |    

यादों का पिटारा

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 फिर से सुहानी शाम आई है संग अपने यादों का पिटारा लाई है | माँ के घर के आँगन में एक पिटारा रखा है उस पिटारे में हैं कुछ खट्टी, कुछ मीठी, कुछ हँसी ठिठोली करती बातें तो कुछ रुला देने वाली रातें | चाय की चुस्कियों के साथ मैं उस पिटारे को टटोलती गई और उसमें से निकलती, अनमोल यादों के मोतियों को धागे में पिरोती चली गई |  उस पिटारे में हाँथ डाला तो सबसे पहले निकली एक मिट्टी की चिड़िया, जो है याद दिलाती कि बचपन में मैं भी पंछियों की तरह, अपने घर के आँगन में उड़ा करती थी |  दोबारा हाँथ डाला तो निकला एक गुड्डा और गुड़िया, दोनों थोड़े पुराने से हो गए थे पर अब भी बड़े प्यारे लगते थे | याद आया कि बचपन में हम इनकी शादी करवाते थे और गुड़िया की जगह गुड्डे की विदाई कराते थे मन में कहीं यह ख़याल आया कि काश ऐसा हकीकत में भी हो जाता |  माँ ने आवाज़ लगाई कि चाय ठण्डी हो रही है पर मैं तो अपने पिटारे में ही गुम थी फिर से हाथ डाला तो निकली कठपुतलियाँ,  जिनका हम बचपन में खेल दिखाते थे जो अब टूट चुकी हैं पर फिर भी खुशियाँ बहुतेरी बिखेरती हैं |  फिर एकाएक ख़याल आया कि हम सब भी तो कठपुतलियाँ ही हैं और ज़िन्दगी हमसे न जाने